मस्जिद का पुनर्निर्माण और बाबा का गुस्सा

गोपालराव गुंड की एक इच्छा तो पूर्ण हो गई थी| उसी तरह उनकी एक और इच्छा भी थी कि मस्जिद का पुनर्निर्माण का कार्य भी कराना चाहिए| अपने इस विचार को साकार रूप देने के लिए उन्होंने पत्थर इकट्टा करके उन्हें वर्गाकार बनवाया था, लेकिन इस कार्य का श्रेय उन्हें प्राप्त नहीं हुआ| शायद बाबा की इच्छा न थी| मस्जिद के पुनर्निर्माण का श्रेय नाना साहब चाँदोरकर को मिला और आंगन के कार्य का श्रेय काका साहब दीक्षित को मिला| बाबा की शायद यही इच्छा थी कि यह कार्य इन कार्यों को अनुमति नहीं दी थी|

बाबा से अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् देखते-ही-देखते एक ही रात में मस्जिद का पूरा आंगन बनकर तैयार हो गया| फिर भी साईं बाबा अपने उसी टाट के टुकड़े के आसन पर ही बैठते थे| बाद में टाट के टुकड़े को वहां से हटाकर उसकी जगह पर एक छोटी-सी गद्दी बिच्छा दी गयी| 1911 में बाबा के भक्तों ने भरपूर मेहनत करके सभामंडप को भी बना दिया था| क्योंकि मस्जिद का आंगन छोटा था और भक्तों की संख्या अधिक होने पर असुविधा होती थी| काका साहब दीक्षित आंगन को विस्तार देकर छप्पर बनवाने की इच्छा रखते थे| इसलिए उन्होंने आवश्यकतानुसार धन खर्च करके लोहे की बल्लियां आदि खरीद लीं| उस समय बाबा एक रात मस्जिद चावड़ी में बिताते और सुबह को मस्जिद में लौट आते थे| यह बात सबको पता थी| भक्तों ने घोर परिश्रम करके लोहे के खम्बों को गाड़ा, पर अगले दिन सुबह को चावड़ी से लौटते साईं बाबा ने उन खम्बों को उखाड़कर फेंक दिया और क्रोधित हो गए|

गुस्से में बाबा एक हाथ से लोहे के खम्बे उखाड़ने लगे और दूसरे हाथ से तात्या के सिर पर से कपड़ा उतारकर उसमें आग लगाकर गड्ढे में फेंक दिया| बाद में उन्होंने अपनी जेब से एक रुपये का सिक्का निकालकर उसे भी गड्ढे में डाल दिया| उस समय बाबा के क्रोध के मारे नेत्र अंगारे की तरह लाल सुर्ख हो रहे थे| बाबा का ऐसा विकराल रूप देखकर कोई भी उनके सामने आंख उठाकर देखने का साहस ने जुटा सका| सभी उपस्थित लोग बड़े भयभीत होकर मन ही मन में बहुत घबरा रहे थे कि अब क्या होने वाला है ? बाबा के इस रूप को देखकर कोई भी कुछ पूछने अथवा बाबा को मनाने की हिम्मत न जुटा सका|

आखिर में बाबा का एक भक्त भागोजी शिंदे जो कुष्ठ रोग से ग्रस्त थे| बाबा को मनाने के लिए साहस करके आगे बढ़े तो बाबा ने उसकी जमकर पिटाई की| माधवराव देशपांड़े (शामा) उन्हें समझाने गये तो उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ| क्रोधावेश में बाबा ईंट के टुकड़े उठाकर फेंकने लगे| जो भी बाबा को मनाने के लिए आगे बढ़ा उसी की दुर्गति हुई|

कुछ देर बाद साईं बाबा का क्रोध स्वयं ही शांत हो गया| तब बाबा ने वहां खड़े भक्तों में से एक दुकानदार को बुलाया और एक जरी वाला रूमाल खरीदकर उसे खुद अपने हाथों से तात्या के सिर पर बांधा| बाबा का ऐसा विचित्र व्यवहार देखकर उपस्थित भक्तों को बड़ा अचम्भा हुआ| उन्हें बाबा के एकाएक गुस्सा होने और तात्या को पीट डालने तथा फिर क्रोध के शांत हो जाने पर तात्या का प्यार दर्शाना कुछ भी समझ में नहीं आया| उसके बाद बाबा की कृपा से सभागृह के निर्माण का कार्य शीघ्र ही पूरा हो गया|

कई बार ऐसा देखने आया था कि बाबा कभी-कभी बिना किसी कारण के एकाएक क्रोधित हो जाते थे, तो पल भर में ही शांत भी हो जाया करते थे|


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