दुनिया में कहीं भी यदि आप भगवान कृष्ण की मूर्ति देखेंगे तो उनके साथ राधा जी की मूर्ति देखेंगे, लेकिन जगन्नाथपुरी में आपको भगवान कृष्ण के साथ बहन सुभद्रा और भाई बलराम की मूर्ति दिखाई देगी. आखिर इसके पीछे क्या कारण है? क्या रहस्य है? इसके पीछे एक महत्वपूर्ण पौराणिक कथा है.
द्वारका में श्री कृष्ण एक बार रात में सोते समय अचानक नींद में राधे-राधे बोलने लगे भगवान कृष्ण की पत्नी रुकमणी ने जब सुना तो उन्हें आश्चर्य हुआ. उन्होंने बाकी रानियों को भी बताया. सभी रानियां आपस में विचार करने लगीं कि भगवान कृष्ण अभी तक राधा को नहीं भूले हैं. सभी रानियां राधा के बारे में चर्चा करने के लिए माता रोहिणी के पास पहुंचीं. माता रोहिणी से सभी रानियों ने आग्रह किया कि भगवान कृष्ण की गोपिकाओं के साथ हुई रहस्यात्मक रासलीला के बारे में बताएं. पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा, लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है. सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों.
माता रोहिणी द्वारा भगवान श्री कृष्ण की रहस्यात्मक रासलीला की कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलराम अचानक महल की ओर आते दिखाई दिए. सुभद्रा ने उचित कारण बता कर दरवाजे पर ही रोक लिया. महल के अंदर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण और बलराम दोनों को ही सुनाई दे रही थी. उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा. साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं. तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे. अचानक देवऋषि नारद वहां आ गए. तब तीनों पूर्ण चेतना में वापस लौटे. नारद जी ने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि हे भगवान आप तीनों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे. महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया. कहते हैं भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्र जी का वही स्वरूप आज भी जगन्नाथपुरी में है. उसे स्वयं विश्वकर्मा जी ने बनाया था. इसकी भी एक कथा है राजा इंद्रद्युम्न नीलांचल सागर वर्तमान के उड़ीसा राज्य में निवास करते थे. एक बार राजा को समुद्र में एक विशालकाय लकड़ी दिखाई दी.
राजा ने उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय किया और अच्छे बढ़ई की तलाश शुरू हुई. तब वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए. और अपना हुनर राजा के सामने पेश किया साथ ही उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊंगा, उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए. राजा ने इसे मान लिया. आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मन्दिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए. कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा. अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा. महारानी ने राजा से अपने मन की बात कही. राजा को भी महारानी की बात ठीक लगी और द्वार खोलने के आदेश राजा ने दिए, लेकिन जैसे ही द्वार खोला गया वहां वह बूढ़ा बढ़ई नहीं था, लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियां वहां पर मिलीं.
महाराजा और महारानी दुखी थे कि काश ये मूर्तियां पूरी बन गई होतीं. लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं. मूर्तियों को स्थापित करवा दो. आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियां जगन्नाथ मन्दिर में सुशोभित हैं. कहते हैं माता सुभद्रा जी ने एक बार द्वारिका भ्रमण की इच्छा अपने भाई श्री कृष्ण और बलराम के सामने रखी थी. तब श्री कृष्ण और बलराम ने अलग-अलग रथ में बैठकर बहन को द्वारिका घुमाया था. तभी से रथयात्रा की परंपरा शुरू हुई. आज भी जगन्नाथपुरी में रथयात्रा निकाली जाती है. भगवान कृष्ण भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ जनता के बीच जाते हैं. भक्त भगवान का आशीर्वाद पाने के लिए अपने हाथों से रथ को खींचते हैं और गुंडीचा मंदिर तक ले जाते हैं. जगन्नाथपुरी में रथयात्रा उत्सव के दौरान हर साल भक्तों का जनसैलाब उमड़ता है जय जगन्नाथ स्वामी का पवित्र नाद संपूर्ण क्षितिज में गूंजता है.
1- जगन्नाथ रथ यात्रा हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को निकाली जाती है. जगन्नाथ से यहां आशय जगत के नाथ यानी भगवान विष्णु से है. उड़ीसा राज्य के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर भारत के चार पवित्र धामों में से एक है. हिन्दू मान्यता के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि हर व्यक्ति को अपने जीवन में एक बार जगन्नाथ मंदिर के दर्शन के लिए अवश्य जाना चाहिए. जगन्नाथ रथ यात्रा भगवान विष्णु के अवतार भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा के साथ जगन्नाथ मंदिर से शुरू होती है. इस पर्व को नौ दिनों तक धूम-धाम से मनाया जाता है. इस अवसर पर सुभद्रा, बलराम और भगवान श्रीकृष्ण की नौ दिनों तक पूजा की जाती है.
2- जगन्नाथ पुरी में भक्त भगवान के रथ को खींचते हुए दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन वापस लाया जाता है.
3- पहांडी एक धार्मिक परंपरा है, जिसमें भक्त बलभद्र, सुभद्रा और भगवान श्रीकृष्ण को गुंडिचा मंदिर तक रथ यात्रा करवाते हैं. मान्यता है कि गुंडिचा भगवान श्रीकृष्ण की सच्ची भक्त थीं और उनकी इसी भक्ति का सम्मान करते हुए भगवान हर साल उनसे मिलने जाते हैं.
4- छेरा पहरा एक रस्म है, जो रथ यात्रा के पहले दिन निभाई जाती है. जिसमें पुरी के महाराज के द्वारा यात्रा मार्ग और रथों को सोने की झाडू से साफ किया जाता है.
5- गुंडीचा मार्जन- रथ यात्रा से एक दिन पहले श्रद्धालुओं के द्वारा गुंडीचा मंदिर को शुद्ध जल से धो कर साफ किया जाता है. इस परंपरा को गुंडीचा मार्जन कहा जाता है.
6- जब जगन्नाथ यात्रा गुंडिचा मंदिर में पहुंचती है तब भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र जी को विधिपूर्वक स्नान कराया जाता है और उन्हें पवित्र वस्त्र पहनाए जाते हैं. यात्रा के पांचवें दिन हेरा पंचमी का महत्व है. इस दिन मां लक्ष्मी भगवान जगन्नाथ को खोजने आती हैं, जो अपना मंदिर छोड़कर यात्रा में निकल गए हैं.
7- रथ के नाम- बलभद्र के रथ को तालध्वज कहा जाता है, जो यात्रा में सबसे आगे चलता है और सुभद्रा के रथ को दर्पदलन या पद्म रथ कहा जाता है जो कि मध्य में चलता है. जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदी घोष या गरुड़ ध्वज कहते हैं, जो सबसे आखरी में चलता है.
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