आज सफलता की होड़ में लोग कहां-कहां भाग रहे हैं। जिसे जहां जगह मिल जाए वहीं प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। भौतिक सफलता की दौड़ हमें जब मंजिल पर पहुंचाती है तो साथ ही अशांति और कुछ छूट जाने का भाव भी दे जाती है। ये मानवीय कमजोरी है कि हम सफलता के मार्ग हमेशा बाहर की ओर ही खोजते हैं, सफलता के साथ शांति चाहिए तो इसका मार्ग आपके भीतर से होकर गुजरेगा।
सीधी सी बात है यदि खड़े रहना चाहते हैं तो धरती पर थोड़ी सी जगह चाहिए और यदि चलना चाहते हैं तो मार्ग। ये दोनों बातें जीवन में होती रहे इसके लिए अध्यात्म ने एक शब्द दिया है श्रद्धा। श्रद्धा जीवन की निरूद्देश्यता पर प्रतिबंध लगाती है। बुद्ध ने एक जगह कहा था हमारी एक ऐसी प्रकृति होती है जो हिरण की कल्पना जैसी रहती है। हिरण को प्यास के दबाव के कारण रेगिस्तान में वहां पानी दिखता है जहां होता नहीं है। इसे मृग-मरीचिका कहा गया है। जो है नहीं उसे मान लेना, देख लेना। हमने परमात्मा के साथ ऐसा ही किया। वह बैठा है भीतर हम ढूंढ रहे हैं बाहर। जहां नहीं है वहां ढूंढने पर एक नुकसान यह होता है कि जहां वह है वहां हम नहीं पहुंच पाते। इस मामले में बुद्ध व सतनाम जैसे संत तो और गहरे निकल गए। वे कहते हैं जिसे तुमने खोया ही नहीं उसे क्या ढूंढना। उसका हमारे भीतर होना ही पर्याप्त है। खोजने की जगह महसूस करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऊपर वाला जब भी किसी इन्सान को धरती पर भेजता है तो स्वयं को उसमें स्थापित करके ही भेजता है। मैन्यूफेक्चरिंग डिफेक्ट जैसा काम उसके यहां नहीं होता। वह पहली पैदाईश से ही कम्पलीट उतारता है।
संसार में आते ही अबोध होते में गड़बड़ हमारे लालन-पालन करने वाले और होश संभालते ही हम स्वयं शुरु करते हैं। अपने भीतर बेहतर जोडऩे से ज्यादा अच्छा घटाने का काम हम ही शुरु कर देते हैं। ऐसे में श्रद्धा वह तत्व है जो मृग मरीचिका की वृत्ति से हमें बचाएगी।सही है, सफलता की राह अपने भीतर है |
जिसे जहां जगह मिल जाए वहीं प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। भौतिक सफलता की दौड़ हमें जब मंजिल पर पहुंचाती है तो साथ ही अशांति और कुछ छूट जाने का भाव भी दे जाती है। ये मानवीय कमजोरी है कि हम सफलता के मार्ग हमेशा बाहर की ओर ही खोजते हैं, सफलता के साथ शांति चाहिए तो इसका मार्ग आपके भीतर से होकर गुजरेगा। सीधी सी बात है यदि खड़े रहना चाहते हैं तो धरती पर थोड़ी सी जगह चाहिए और यदि चलना चाहते हैं तो मार्ग। ये दोनों बातें जीवन में होती रहे इसके लिए अध्यात्म ने एक शब्द दिया है श्रद्धा। श्रद्धा जीवन की निरूद्देश्यता पर प्रतिबंध लगाती है। सतनाम जी ने एक जगह कहा था हमारी एक ऐसी प्रकृति होती है जो हिरण की कल्पना जैसी रहती है। हिरण को प्यास के दबाव के कारण रेगिस्तान में वहां पानी दिखता है जहां होता नहीं है। इसे मृग-मरीचिका कहा गया है। जो है नहीं उसे मान लेना, देख लेना। हमने परमात्मा के साथ ऐसा ही किया।
वह बैठा है भीतर हम ढूंढ रहे हैं बाहर। जहां नहीं है वहां ढूंढने पर एक नुकसान यह होता है कि जहां वह है वहां हम नहीं पहुंच पाते। इस मामले में सतनाम जैसे संत तो और गहरे निकल गए। वे कहते हैं जिसे तुमने खोया ही नहीं उसे क्या ढूंढना। उसका हमारे भीतर होना ही पर्याप्त है। खोजने की जगह महसूस करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऊपर वाला जब भी किसी इन्सान को धरती पर भेजता है तो स्वयं को उसमें स्थापित करके ही भेजता है। मैन्यूफेक्चरिंग डिफेक्ट जैसा काम उसके यहां नहीं होता। वह पहली पैदाईश से ही कम्पलीट उतारता है। संसार में आते ही अबोध होते में गड़बड़ हमारे लालन-पालन करने वाले और होश संभालते ही हम स्वयं शुरु करते हैं। अपने भीतर बेहतर जोडऩे से ज्यादा अच्छा घटाने का काम हम ही शुरु कर देते हैं। ऐसे में श्रद्धा वह तत्व है जो मृग मरीचिका की वृत्ति से हमें बचाएगी।
Posted Comments |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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