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मुझे परमात्मा से मिला दो

 

रामानुज ने कहा: भले मानुष, तूने कभी किसी को प्रेम किया? उस आदमी ने कहा: इस झंझट में मैं पड़ा नहीं। प्रेम इत्यादि की बातें छोड़ो; मुझे तो परमात्मा से मिला दो। रामानुज ने कहा: थिर मैं हार गया। अगर तूने कभी प्रेम ही नहीं किया, तो तू प्रार्थना कैसे करेगा? उसने कहा: मनुष्यों को प्रेम करने का परमात्मा की प्रार्थना से क्या लेना-देना? यही तो झंझट है; मनुष्यों का प्रेम ही तो झंझट है। इससे मैं पहले से ही बचता रहा हूं।
कहते हैं: रामानुज की आंखों में आंसू आ गये। रामानुज ने कहा: जिसने मनुष्यों से प्रेम नहीं किया, वह कभी परमात्मा की प्रार्थना भी समझ न पाएगा।
ये मनुष्य तो पाठ हैं। यह तो क ख ग है--प्रार्थना का। यहां बड़े कांटे हैं--माना; और हजार कांटों में कहीं एक छिपा फूल है। यह भी सच है। लेकिन इस फूल को पाने की चेष्टा, इस फूल को जीने की चेष्टा--और इस चेष्टा में हजार-हजार कांटों का चुभ जाना, यही जीवन में गति का उपाय है; यही चुनौती है। इस चुनौती से कोई उठता है।
भक्त कहते हैं: प्रेम से भागना मत; प्रेम का बढ़ाना बड़ा करना। एक पर प्रेम न रुके; फैलता जाए--अनेक पर फैल जाए--अनंत पर फैल जाए। प्रेम बंधन नहीं है--भक्त कहते है: बंधन--सीमित के साथ प्रेम है। प्रेम बंधन नहीं है--प्रेम अपने में बंधन नहीं है। प्रेम जहां रुक जाता है, वहां बंधन हो जाता है। मेरा प्रेम किसी पर रुक गया और मैंने मान लिया कि सब, इतिश्री हो गई, तो बंधन है।
मेरा प्रेम रुके ना, जिसे मैं प्रेम करूं, उसके पार होता जाए; जिसे मैं प्रेम करूं, वह सीढ़ी बन जाए, और मैं मंदिर की एक सीढ़ी और चढ़ जाऊं; तो तुमने जितना प्रेम किया, उतने ही तुम परमात्मा के करीब पहुंच जाओगे। तुम्हारा प्रेम जितना बड़ा होने लगेगा, उतनी सीढ़ियां तुम पार कर गये। और इसके बिना तुम लाख उपाय करो, तुम्हारे भीतर का गीत न फूटेगा।
तरसती हूं गीत गाने के लिए
भाव लेकिन मुखर हो पाते नहीं।
प्रेम पहली किरण है--परमात्मा की, प्रेम पहली किरण है--समाधि की। प्रेम में छिपा है राज सारा। तुम उतना ही प्रेम मत समझ लेना, जितना तुम जानते हो; प्रेम उससे बहुत बड़ा है। तुमने तो जिसे प्रेम कहा है, वह शायद प्रेम भी नहीं है। शायद प्रेम के नाम पर तुम कुछ और ही धोखा-घड़ी किए बैठे हो।
तुमने प्रेम किया कब? तुम जब प्रेम करने की बात करते हो, तब भी तुमने कभी सच में प्रेम किया? या प्रेम के नाम पर कुछ और करते रहे? ईष्या है, मत्सर है, द्वेष है, मालकियत है। तुम्हारे प्रेम में बड़ी राजनीति है। तुम्हारे प्रेम में बड़ी कलह है। तुम्हारे प्रेम में कहां संगीत है? कहां अनाहत नाद है?
तुम कभी किसी मनुष्य के हाथ में हाथ लेकर ऐसे बैठे हो कि उस क्षण कोई कलह न हो, छीना-झपटी न हो? कभी एक क्षण को ऐसा हुआ है, जब तुम किसी के पास मौन हो गए हो और तुम्हारे दोनों हृदयों का मौन एक-दूसरे में समाने लगा है? जैसे दो दीए पास आ जाए और उनकी ज्योति एक हो जाए--ऐसा कभी हुआ है? तो फिर प्रेम हुआ है। फिर इसी प्रेम से परमात्मा की पहली खबर पाओगे। इस प्रेम में परमात्मा ने पहली दफा पुकारा। तुम्हें उसकी पहली धुन सुनाई पड़ेगी।

परमात्मा शास्त्रों में खोजे से नहीं मिलता। परमात्मा की सुधि आती है; और सुधि आती है--किसी अनुभव से। और मनुष्य के पास जो निकटतम अनुभव हो सकता है, वह प्रेम का अनुभव है।
माना प्रेम बहुत दूर है--परमात्मा से...। जैसे कि पहली सीढ़ी मंदिर की प्रतिमा से दूर होती है। लेकिन पहली, सीढ़ी पर पैर रख कर दूसरी सीढ़ी, तीसरी सीढ़ी--और धीरे-धीरे तुम मंदिर तक पहुंच जाते हो।
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Posted Comments
 
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।"
Posted By:  संतोष ठाकुर
 
"om namh shivay..."
Posted By:  krishna
 
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye"
Posted By:  vikaskrishnadas
 
"वास्तु टिप्स बताएँ ? "
Posted By:  VAKEEL TAMRE
 
""jai maa laxmiji""
Posted By:  Tribhuwan Agrasen
 
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है"
Posted By:  ओम प्रकाश तिवारी
 
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