पन्द्रहवीं सदी में प्रसिद्ध मैथिल कवि पण्डित विद्यापतिमिश्र अद्भुत शिवभक्त थे। वे भोलेनाथ के समक्ष मधुर कण्ठ से कीर्तन करते और उनकी आंखों से झर-झर आंसू बहते रहते—
मन विद्यापति
मोर
भोलानाथ
गति।
देहु
अभय
वर
मोहि,
हे
भोलानाथ।।
जिसका अर्थ है मेरा विद्यापति का मन भोलेनाथ आप में ही गतिमान है, हे भोलेनाथ मुझे अभय वरदान प्रदान करो। विद्यापति के शुद्ध भावों से सजे सूंदर पदों को सुनने के लिए भगवान् भोलेनाथ ने सेवक ‘उगना’ का रूप धारण किया था।
विद्यापति सदैव अपने आराध्य भगवान शिव के लिए इतने भावपूर्ण पद लिखते थे। कि भोले शंकर उन्हें सुनने के लिए सदैव लालायित रहते थे। भक्ति जिसके प्रति होती है, उसे भी नित्य रस मिलता है और जिसको होती है, उसे भी रस मिलता है। इसी रस की इच्छा ने भगवान भोले शंकर को अपने भक्त की चाकरी करनी भी स्वीकार कर ली थी।
एक दिन पण्डित जी ऐसे ही भावपूर्ण पद लिख रहे थे कि एक आदमी वहां आया। जितना वह सुन्दर था उसकी मीठी बोली उतनी ही मन्त्र मुग्ध करने वाली थी। उसने पण्डित जी से कोई काम देने का आग्रह किया। पण्डित जी ने कहा—‘मेरे यहां तो कोई काम नहीं है, मैं तो बस शिवाराधन करता हूँ।’
परन्तु आगन्तुक जिद पर अड़ा रहा कि मुझे तो अपनी सेवा में रख ही लीजिए। आपका काम पूरा कर मैं पण्डिताइन जी का भी हाथ बंटा दिया करुंगा। कुछ काम न हो तो मैं आपके यहां झाड़ू लगा दिया करुंगा। उसके आग्रह को देखकर पण्डित जी ‘ना’ न कह सके और बोले—‘तुम लोगे क्या?’
आगन्तुक ने कहा—‘कुछ नहीं। खाना-पीना और लंगोट।’ पण्डितजी ने पूछा—‘तुम्हारा नाम क्या है?’ उसने उत्तर दिया—‘उगना।’
(अलग-अलग पुस्तकों में तीन नाम मिलते हैं—उगना, उदना, उधना परन्तु उगना नाम ही ज्यादा प्रयोग हुआ है।)
अब घर में तीन प्राणी हो गए। पण्डित जी लिखते थे और उगना उनका बिस्तर साफ कर देता, स्याही भर देता। बचे समय में पण्डिताइन उगना से झाड़ू लगवा लेतीं।
एक दिन पण्डित जी को किसी कार्य से बाहर जाना पड़ा। गर्मी की भरी दुपहरी में पण्डित जी जंगल के रास्ते में पद गाते हुए चले जा रहे थे और सेवक पीछे पण्डितजी पर छतरी तान कर चल रहा था। तभी पण्डितजी को बहुत जोर से प्यास लगी। उन्होंने कहा—‘उगना! भैया! पानी पिला सकोगे? बड़ी प्यास लगी है।’
आस-पास कुंआ या तालाब कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। उगना से अपने स्वामी का कष्ट देखा नहीं गया और बोला—‘मैं अभी आता हूँ।’ ऐसा कहकर वह पानी लेने चला गया।
थोड़ी दूर जाकर वृक्षों की ओट में उगना ने अपने दांये पैर का अंगूठा पृथ्वी पर जोर से दबाया और गंगा की धार जमीन से फूटकर लोटे में समा गयी। उगना जल का लोटा लेकर पण्डितजी के पास आया और उन्हें जल पीने के लिए दिया। विद्यापति जल पीने लगे, साथ ही मन में सोचने लगे—‘जल का स्वाद भी कहीं इतना मधुर होता है! यह तो निश्चय ही भागीरथी का जल है।’
विद्यापति ने उगना से पूछा—‘यह जल तुम कहां से लाए?’ उगना ने कहा—‘पास के ही एक कुएं से लाया हूँ।’ विद्यापति एकटक अपने सेवक को देख रहे थे। वे गंगाजल और कुएं के जल का भेद न कर सकें, यह तो संभव नहीं। उन्हें उगना पर संदेह हो गया कि इस जंगल में गंगाजल जैसा पवित्र जल कहां से आया।
पण्डित जी उगना से कुएं के पास ले चलने की जिद करने लगे पर उगना टालमटोल करने लगा। पण्डित जी का सन्देह विश्वास में बदल गया। पण्डितजी ने डबडबायी आंखों से कहा—‘उगना तुम कौन हो?’
तब भगवान भोलेशंकर ने विद्यापति को अपना वास्तविक शिव स्वरूप दिखाया
भोलेशंकर झूठ कैसे बोलते, भगवान शिव को अपना स्वरूप प्रकट करना पड़ा। उनकी जटा से गंगा की धारा प्रवाहित होकर आकाश में विलीन होने लगी। जिसको स्वयं भगवान अपना प्रिय मानें, उसे भगवान सुलभ हो जाते हैं—
‘विद्यापति! मैं तुम्हारी सेवा में ‘उगना’ बना तुम्हारा आराध्य भोलेनाथ हूँ। मुझे तुम्हारे साथ रहने में बड़ा सुख मिलता है। तुम्हारा प्रेम और भक्ति में भीगा काव्य मुझे तुमसे दूर न रख सके, इसलिए मुझे इस रूप में तुम्हारे यहां आना पड़ा। तुम्हारा कल्याण हो।’
विद्यापति अवाक् रह गए। भोलेनाथ ने कहा—‘मैं जा रहा हूँ।’ विद्यापति ने आराध्य के चरण पकड़ लिए—‘मेरे भाग्य खुल गए फिर भी मैं समझ न पाया। मुझे धिक्कार है, मैंने आपसे सेवा करवायी। अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा।’
अंत में भक्त और भगवान के बीच समझौता हुआ कि ‘मैं अब भी उगना बनकर तुम्हारी सेवा में रह सकता हूँ, लेकिन जिस दिन यह रहस्य खुल गया, मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊंगा।’ तुरन्त ही देवाधिदेव के स्थान पर हंसता हुआ उगना खड़ा था। प्रेमविह्वल सेवक और स्वामी घर लौट आए।
सेवक कौन और स्वामी कौन अब ये विद्यापति दूसरे थे। एक क्षण भी उन्हें उगना के बिना चैन नहीं पड़ता था। अपने आराध्य को अपने समीप देखकर विद्यापति का मन बहुत प्रसन्न रहने लगा; लेकिन आराध्य से सेवा करवाते देखकर उनका मन उन्हें कचोटता था और वे ध्यान रखते कि उगना से कोई ऐसा-वैसा काम न करवाया जाए।
‘उगना मेरे स्वामी की सेवा करता है या मेरे स्वामी उगना की ज्यादा मनुहार करते रहते हैं’—यह सोचकर पण्डिताइन हर समय नौकर से चिढ़ती रहती थी।
एक दिन बड़ा कौतुक हुआ। पण्डिताइन का बाजार से कुछ सामान लाने में उगना को थोड़ी देर हो गयी।
‘तबका गया तू अब आ रहा है, मैंने तुझे सामान लाने के लिए कब बाजार भेजा था। बहुत सिर चढ़ गया है तू!’ नाराज पण्डिताइन एक मोटी-सी जलती हुई लकड़ी लेकर उगना पर टूट पड़ी। उगना चुपचाप अपना काम करता रहा, लेकिन विद्यापति से यह सहन नहीं हुआ कि उनके आराध्य को जलती लकड़ी से मारा जाए। वे पत्नी पर चीख पड़े—
‘ये क्या अनहोनी कर दी? ये मेरे आराध्य भगवान आशुतोष सदाशिव हैं। भक्ति के वशीभूत हम लोगों पर कृपा करने के लिए ये यहां इस रूप में रह रहे हैं। तुम तो साक्षात् शिव पर ही चोट करने जा रही हो।’ विद्यापति शिव के चरणों में लोटने लगे लेकिन शिव तो शिव ठहरे, वचन भंग होते ही वे अन्तर्धान हो गए।
मेरा उगना कहां चला गया रे.... तभी से विद्यापति पागलों की तरह हर समय ‘उगना-उगना’ की रट लगाये रहते और अपने आराध्य के विरह में अनेक छन्द लिखकर गाते और उगना को ढ़ूंढ़ते रहते।
Posted Comments |
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।" |
Posted By: संतोष ठाकुर |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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