एक बगीचे में मैं गया था। एक ही जमीन थी उस बगीचे की। एक ही आसमान था उस बगीचे के ऊपर। एक ही सूरज की किरणें बरसती थीं। एक सी हवाएं बहती थीं। एक ही माली था। एक सा पानी गिरता था। लेकिन उस बगीचे में फूल सब अलग-अलग खिले हुए थे। मैं बहुत सोच में पड़ गया। हो सकता है कभी किसी बगीचे में जाकर आपको भी यह सोच पैदा हुआ हो।
जमीन एक है, आकाश एक है, सूरज की किरणें एक हैं, हवाएं एक हैं, पानी एक है, माली एक है। लेकिन गुलाब पर गुलाबी फूल हैं,चमेली पर सफेद फूल हैं। सुगंध अलग है। एक ही जमीन और एक ही आकाश से और एक ही सूरज की किरणों से ये अलग-अलग फूल, अलग-अलग रंग, अलग-अलग सुगंध, अलग-अलग ढंग कैसे खींच लेते हैं?
मैं उस माली को पूछने लगा। उसने कहा, सब एक है, लेकिन खींचने वाले बीज अलग-अलग हैं।
छोटा सा बीज लेकिन क्या खींच लेता होगा?
जरा सा बीज, इतने बड़े आकाश और इतनी बड़ी जमीन और इतने बड़े सूरज और इतनी हवाओं को, इन सबको एक तरफ फेंक कर अपनी ही इच्छा का रंग खींच लेता है! इतनी बड़ी दुनिया को एक तरफ हटा कर एक छोटा सा बीज अपनी ही इच्छा की सुगंध खींच लेता है! एक छोटे से बीज का संकल्प इतना बड़ा है, जितना आकाश नहीं, जितनी पृथ्वी नहीं! और एक बीज वही हो जाता है जो होना चाहता है! एक छोटे से बीज के भीतर ऐसा क्या हो सकता है?
हर बीज की अपनी इच्छा है, अपना विल, अपना संकल्प है। वह छोटा सा बीज वही खींचता है जो खींचना चाहता है, और सब पड़ा रहे, वह उसे छूता भी नहीं। गुलाब गुलाब बन जाता है, चमेली चमेली बन जाती है। पास में ही चमेली बन गई है चमेली, पास में ही गुलाब गुलाब बन गया है। एक ही मिट्टी से दोनों ने ताकत खींची है। गुलाब की सुगंध अलग है, चमेली की सुगंध अलग है, रंग-ढंग सब कुछ अलग है।
जिंदगी में अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन हम वही बन जाते हैं जो हम उन संभावनाओं में से अपने भीतर खींच लेते हैं। अनंत विचारों का विस्तार है, अनंत विचारों की तरंगें हैं चारों तरफ। लेकिन हम उन्हीं विचारों को अपने पास खींच लेते हैं, जिन विचारों को खींचने की क्षमता, हमारे भीतर होती है।
इसी दुनिया में एक आदमी बुद्ध हो जाता है। इसी दुनिया में एक आदमी जीसस हो जाता है। इसी दुनिया में एक आदमी कृष्ण हो जाता है। और इसी दुनिया में हम कुछ भी नहीं होते और ना-कुछ होकर मिट जाते हैं और खत्म हो जाते हैं। और जिस दुनिया से खींची जाती हैं सारी चीजें, वह बिलकुल एक है--वह आकाश एक, वह जमीन एक, वह चारों तरफ की हवाएं एक, वे सूरज-चांदत्तारे एक--वह सब एक, और हर आदमी अलग-अलग कैसे हो जाता है? और हमारी शक्ल-सूरत भी एक सी मालूम पड़ती है, हमारे शरीर भी एक से मालूम पड़ते हैं, हमारी हड्डी-मांस-मज्जा भी एक सी मालूम पड़ती है। फर्क कहां पड़ जाता है? आदमी के व्यक्तित्व अलग-अलग कहां हो जाते हैं? कोई आदमी बुद्ध कैसे हो जाता है? कोई आदमी अंधकार में कैसे खड़ा रह जाता है? कोई आदमी प्रकाश में कैसे उठ जाता है?
वह जो मैंने कल कहा उस बात को समझ लेना जरूरी है। मैंने कल कहा कि मनुष्य के व्यक्तित्व में सात केंद्र हैं, सात चक्र हैं। और जो केंद्र सक्रिय होता है वह अपने अनुकूल चारों तरफ से सब कुछ खींच लेता है। केंद्र एक रिसेप्टिविटी बन जाता है, एक ग्राहकता बन जाता है। अगर क्रोध का केंद्र सक्रिय है, तो वह आदमी अपने चारों तरफ से क्रोध की सारी लहरों को समाविष्ट कर लेगा। अगर प्रेम का केंद्र सक्रिय है, तो चारों तरफ से प्रेम की धाराएं उस आदमी की तरफ दौड़ने लगेंगी। अगर काम का केंद्र सक्रिय है, तो सारे चारों तरफ से कामवासना उसकी तरफ दौड़ने लगेगी। वह एक खड्ड की तरह बन जाएगा और चारों तरफ की धाराएं, जो उसने मांगा है उसकी तरफ आनी शुरू हो जाएंगी।
Posted Comments |
" जीवन में उतारने वाली जानकारी देने के लिए धन्यवाद । कई लोग तो इस संबंध में कुछ जानते ही नहीं है । ऐसे लोगों के लिए यह अत्यन्त शिक्षा प्रद जानकारी है ।" |
Posted By: संतोष ठाकुर |
"om namh shivay..." |
Posted By: krishna |
"guruji mein shri balaji ki pooja karta hun krishna muje pyare lagte lekin fir mein kahi se ya mandir mein jata hun to lagta hai har bhagwan ko importance do aur ap muje mandir aur gar ki poja bidi bataye aur nakartmak vichar god ke parti na aaye" |
Posted By: vikaskrishnadas |
"वास्तु टिप्स बताएँ ? " |
Posted By: VAKEEL TAMRE |
""jai maa laxmiji"" |
Posted By: Tribhuwan Agrasen |
"यह बात बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम अपने मन को निर्मल एवँ पबित्र नही करते तब तक कोई भी उपदेश ब्यर्थ है" |
Posted By: ओम प्रकाश तिवारी |
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