भगवान श्री कृष्ण जी ने महाभारत की लड़ाई में अर्जुन के सारथी के रूप में भाग लिया था। अपने लिए श्री कृष्ण जी ने इस कार्य का स्वयं चुनाव किया था। सभी सोलह कलाओं से संपूर्ण अपने दिव्य सुदर्शन चक्र से सारी सृष्टि को पल भर में समाप्त कर देने की सामर्थ्य रखने वाले और सारी सृष्टि का पालन करने वाले प्रभु श्री कृष्ण महाभारत में अपने प्यारे मित्र अर्जुन के रथ का संचालक बनना स्वीकार किया था। शुरुआत में स्वयं अर्जुन को प्रभु श्री कृष्ण जी का ये निर्णय बहुत ही अधिक आश्चर्यचकित करने वाला लगा था कि उसके प्रिय मित्र कृष्ण उनके रथ को हांकेंगे।
 
किन्तु यह केवल एक सारथी की भूमिका मात्र नहीं थी, अपितु महाभारत रूपी इस भयंकर महायुद्ध की पटकथा भी श्री कृष्ण जी  के द्वारा ही तैयार की गई थी। साथ ही उन्होंने युद्ध से पहले ही अधर्म और अन्याय की हार तथा धर्म और सत्य की जीत को निर्धारित कर दिया था। इसके बावजूद भी श्री कृष्ण जी का खुद को अर्जुन का सारथी नियुक्त करना उसके लिए काफी असहजता से भरा था।
 
एक कुशल सारथी के रूप में श्री कृष्ण जी सभी कार्यों का निर्वाह कर रहे थे। एक सारथी के जैसे ही वो पहले धनुर्घर अर्जुन को रथ में आदर सत्कार के साथ चढ़ाते थे फिर खुद रथ चलाने के लिए बैठते थे और अर्जुन के निर्देश की प्रतीक्षा करते थे। वैसे तो अर्जुन स्वयं श्री कृष्ण जी के दिशा निर्देश और आशीष से ही कार्य करते थे, मगर श्री कृष्ण जी अपनी अर्जुन के सारथी की भूमिका को उसके प्रति पूरे समर्पण के साथ निभाते थे।
 
प्रतिदिन सांयकाल युद्ध के बाद भी श्री कृष्ण पहले अर्जुन को रथ से उतारते थे। श्री कृष्ण ने महाभारत का युद्ध आरम्भ होने के समय कहा था, ‘‘हे पार्थ अर्जुन! इस महायुद्ध में अपनी जीत निर्धारित करने के लिए शक्ति स्वरुप देवी माँ दुर्गा का आशीर्वाद अवश्य लेना चाहिए। माँ शक्ति का आशीष तुम्हे इस युद्ध में विजयश्री दिलाएगा।" 
 
महाभारत के आरम्भ में अर्जुन के सारथी बने श्री कृष्ण ने उसको एक और महत्वपूर्ण सुझाव दिया था, ‘‘हे अर्जुन! श्री हनुमान जी का आह्वाहन करो। वो महावीर हैं, अजेय हैं और धर्म के प्रतीक स्वरुप हैं। उनको अपने रथ की ध्वजा पर विराजने के लिए आमंत्रित करो।’’
 
अर्जुन ने श्री कृष्ण जी की ये बात मानते हुए ऐसा ही किया। श्री कृष्ण भगवान् ने महाभारत युद्ध के समय ही कुरुक्षेत्र की रणभूमि में परम ज्ञान के रूप में अर्जुन को गीता सुनाई थी। उस समय भी श्री कृष्ण भगवान् एक सारथी की ही भूमिका में थे। अर्जुन के सारथी के रूप में भगवान् श्री कृष्ण जी ने न केवल उसके शक्ति, सामर्थ्य और पराक्रम को बल प्रदान किया, बल्कि उसको विपत्ति के कठिन समय में सुरक्षा तथा संरक्षण का भी अनुभव कराते हुए अपने एक मित्र और सारथी की भूमिका का सर्वश्रेष्ठ निर्वहन भी किया। 
 
स्वयं भीष्म पितामह, ने अर्जुन को आशीर्वाद देते हुए कहा था, ‘‘हे प्रिय अर्जुन! स्वयं श्री कृष्ण भगवान् जिसके सारथी बन गए हों, उसको भला कैसी चिंता हो सकती है। तुम्हारी विजय तो निश्चित है।’’ श्री कृष्ण, अर्जुन को धर्म का सही अर्थ उस समय बताते है जब दानवीर सूर्यपुत्र कर्ण धरती में धसे अपने रथ के पहिये को निकालने का प्रयास कर रहा था। उस समय कर्ण, अर्जुन को निति व धर्म की दुहाई दे रहा था। जिसके प्रतुत्तर में श्री कृष्ण जी, अर्जुन से कहते, ‘‘हे पार्थ! कर्ण आज कैसे धर्म का ज्ञान दे सकता है। जब द्रौपदी का चीरहरण किया जा रहा था, अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेरकर मारा जा रहा था, भीम को विष दिया जा रहा था, लाक्षागृह को जलाने का प्रयास किया जा रहा था तब कर्ण का ये धर्म और नीति कहां चली गयी थी? यही समय है कर्ण को समाप्त करने का।’’ उस समय श्री कृष्ण जी के सही दिशा निर्देश से ही कर्ण का अंत हो पाया था। 
 
श्री कृष्ण जी ने सारथी के रूप में ही अर्जुन की सहायता करते हुए जयद्रथ जैसे दुष्ट का वध करवाने के लिए व्यूह रचा था। जिस कारण अर्जुन जयद्रथ का वध करने में सफल हो सके थे। प्रभु श्री कृष्ण ने अर्जुन के सारथी की भूमिका को बखूबी निभाया था। एक समय अर्जुन विचार कर रहा था कि अगर कृष्ण जी ने मेरे रथ का सञ्चालन न किया होता तो पता नहीं मेरा क्या होता? 
 
भगवान श्री कृष्ण एक ओर अपने हाथों से अर्जुन के रथ के घोड़ों की लगाम पकडे थे तो दूसरी ओर महाभारत के उस महायुद्ध की समग्र डोर भी मानो उन्ही के वश में थी। जब महाभारत का वो युद्ध समाप्त हुआ तो कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भगवान श्री कृष्ण जी रथ पर बैठे हुए थे। उनके होठों पर आज भी हमेशा बनी रहने वाली वो एक निश्छल मुस्कराहट विध्यमान थी जो शायद अब और भी कुछ अधिक गहरी हो चुकी थी। श्री कृष्ण भगवान जी के भावों के साथ में उनका व्यवहार भी आज कुछ बदला हुआ सा था।
 
श्री कृष्ण जी आज भी सदा की भांति अर्जुन के रथ से पहले नहीं उतरे और उसको कहा, ‘‘अर्जुन! आज तुम रथ से पहले उतर जाओ। तुम्हारे उतर जाने के पश्चात मैं उतरूँगा।’’ अर्जुन को उनकी ये बात थोड़ी अजीब सी लगी। कृष्ण तो हमेशा बड़े आदर से मुझे रथ से उतारने के बाद उतरते थे, किन्तु आज उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?
 
प्रभु श्री कृष्ण, तब अर्जुन के रथ से उतरने के उपरांत कुछ समय के लिय शांत रहे, फिर अपना हाथ अर्जुन के कंधे पर रखकर उनको रथ से कुछ दूर ले गए। उसके बाद में जो घटना हुई भगवान श्री कृष्ण जी के लिए तो वह पहले से ज्ञात थी, मगर यह अर्जुन के लिए भयभीत करने वाली, कल्पना शक्ति के परे एवं आश्चर्यचक्ति करने वाली थी। हुआ यह कि अर्जुन के रथ से अचानक ही आग की लपटें निकलने लगीं और वह एक बड़े विस्फोट के साथ जलकर भस्म हो गया।
 
अर्जुन सारी घटना को अचरज से देखकर विचार कर रहे थे कि जो रथ कई अजेय महारथियों की जीवन यात्रा के अंत का प्रत्यक्षदर्शी था, आज कैसे वो वह क्षण भर में मिट गया। उस रथ से जुड़े भूतकाल की घटनाओं को अर्जुन याद करते विचार कर रहे थे कि इसी रथ से मैंने पूज्य पितामह के शरीर को तीरों से बाँध दिया था। इसी रथ से मैंने बड़े बड़े बलशाली योद्धाओं को परास्त किया था। इसी रथ पर माधव ने मुझे गीता का परम उपदेश भी दिया था मगर फिलहाल यह केवल राख का एक ढेर मात्र है। 
 
अपनी आँखों के सामने हुए इस अचंभित कर देने वाले वाकये को देखकर अर्जुन ने श्री कृष्ण भगवान से पूछा, ‘‘हे माधव! आपके नीचे उतरते ही कुछ ही समय में यह रथ जलकर राख हो गया। ऐसा क्यों हुआ, इस पीछे क्या कारण है?’’
 
अर्जुन को समझाते हुए श्री कृष्ण जी कहते है, ‘‘यह रथ तो काफी समय पूर्व ख़त्म हो गया था, तुम्हारे इस रथ की आयु उस समय समाप्त हो चुकी थी जब पितामह भीष्म ने इस पर अपने दिव्यास्त्रों आक्रमण किया था। तुम्हारे इस रथ में इतनी अधिक शक्ति नहीं थी कि भीष्म पितामाह के शक्तिशाली दिव्य अस्त्रों का सामना कर पाए। फिर बाद में इसकी सामर्थ्य और कम हो गयी, जब द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे बड़े महारथियों के भयंकर दिव्य अस्त्रों से प्रहार हो रहा था। तुम्हारा यह रथ तो कब का अपनी मृत्यु का वरण कर चुका था अर्जुन।’’
 
श्री कृष्ण के ये वचन सुनकर अर्जुन के शंशय में और अधिक वृद्धि हो गयी इसलिए वह बोला, ‘‘हे कृष्ण! जब मेरा यह रथ इतनी पहले नष्ट हो चुका था, तो इतने दिनों तक फिर यह चला किस प्रकार? अब तक कैसे ये आपके द्वारा इस प्रकार संचालित होता रहा।’’
 
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले, ‘‘ये सही है कि तुम्हारे इस दिव्य रथ की आयु पहले ही ख़त्म हो गयी थी, मगर मेरे संकल्प से तुम्हारा ये रथ अभी तक चल रहा था। इसकी आयु के सामप्त हो जाने के बाद में भी इसकी आवश्यकता थी, जिस कारण ये अब तक चला। धर्म स्थापना के इस महायुद्ध में इस रथ का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है, जिसकी वजह से मेरे संकल्प से इतने समय तक यह चलता रहा।’’
 
श्री कृष्ण जी कहते है, ‘‘हे धनंजय! ईश्वर द्वारा किया गया कोई भी संकल्प अटूट, अटल और अखंड होता है। इस प्रकार के  संकल्प जब मानव कल्याण हेतु विधाता लेते है, इसके अद्भुत परिणाम मिलते है। ये संकल्प एक निश्चित समय और कार्य के लिए किये जाते है इनका प्रभाव संदेहों से परे आवश्यक परिणाम प्रदान करने वाला होता है। किसी भी संकल्प के पूरा होने पर, संकल्प की दिव्य शक्ति वापस भगवान के पास लौट जाती है। क्योंकि संकल्प के समय या कार्य के पूरा होने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जैसे कि तुम्हारे इस रथ पर मेरी एक संकल्प शक्ति काम कर रही थी जिसके पूरा होने पर हमेशा वैसा ही होता है जैसा तुमने अपने रथ के साथ होते हुए देखा।’’
 
अतः हे अर्जुन! सभी को ईश्वर के हाथों में सबकुछ सौंपकर अपने काम को करना चाहिए। जिस प्रकार एक यंत्र का काम अपने यंत्री के हाथों में अपना सबकुछ सौंपकर उसके निर्देशों का पालन करना होता है। इससे व्यक्ति के स्वयं को कर्ता मान लेने वाले अहंकार की समाप्ति हो जाती है और जीवन का उत्थान होता है। अपनी सामर्थ्य, शक्ति और बुद्धि के अनुसार जितना संभव हो सके कार्य करते हुए सहजता से सब कुछ यंत्री के हाथों में सौंप देना चाहिए। यही मानव जीवन के उत्थान का गूढ़ रहस्य है।